पातालपानी

.रात के करीब ८ बज रहे होगे. किसी ने दरवाजा खटखटाया, देखा तो सामने लोकेन्द्र खडा था. उसे देख कर अच्छा लगा क्योकिं बाकी दोनों दोस्तों से मेरी बातचीत बंद थी. और इन तीनो के अलावा और कोई दोस्त नहीं था. हॉस्टल में ये पहला साल था, और पहली बार घर से दूर हुआ था, ऐसा ही कुछ मेरे बाकी दोस्तों का भी हाल था, लेकिन अच्छे  दोस्तों की संगत में कभी ये कमी नहीं खली.
लोकेन्द्र ने कहा की हम सभी पातालपानी [famous waterfall near Indore] घुमने का प्लान बना रहे है, बस तुम्हारी कमी है. चूँकि लोकेन्द्र हमारे बीच संवाद वाहक की तरह था. और बाहर पिकनिक पर जाने की हम सबकी पहली योजना थी और मैं भी ये मौका खोना नहीं चाहता था. सो मैंने भी हाँ कह दिया.
 
 आज १ जनवरी थी. साल की शुरुआत काफी खुशनुमा ढंग से करने की चाहत थी. इसलिए हम सुबह फटाफट तैयार हो गए. पदम, आशीष, लोकेन्द्र, और मैं, हम सभी रेलवे स्टेशन की और चल पड़े. ठण्ड का मौसम था और चारो तरफ धुंध-कोहरा छाया हुआ था. इस गुलाबी ठण्ड में हम जो कुछ महसूस कर रहे थे वो हम सब के लिए बहुत ही यादगार था. रेलवे स्टेशन महज १ किलोमीटर  की दूरी पर था. हंसते-गाते, शरारत करते हम ९ बजे तक रेलवे स्टेशन पहुँच गए. प्लेटफोर्म  पर ज्यादा भीड़ नहीं थी.  पदम भी जल्द टिकिट ले आया. अब पता चला की रेल जा चुकी थी. अब जो भी अगली रेल थी एक घंटे बाद थी. हम क्या करते, हम प्लेटफोर्म ५ पर गए जहाँ  हमने कौफी ली, ब्रेड और सेंव वगेरह खरीदी. स्टाल पर कुछ किताबे टटोली. इतने में ट्रेन प्लेटफोर्म पर लग चुकी थी. अब हमने वो किया जो हमे नहीं करना चाहिए था, हम स्लीपर डिब्बे में जान-बुझा कर चढ़ गए. और शायद इस निर्णय ने हमारे सफ़र को और मजेदार बना दिया. कुछ देर में ट्रेन चल पड़ी. वो पल इतना हसीं था जिसे शब्दों में समेट  पाना मुश्किल है. ट्रेन अपने ही अंदाज़ में धीरे-धीरे खिसकती हुयी आगे बड़ी, और दुनिया मानो उसके इर्द-गिर्द दौड़ने लगी. बस्तिया मानो ट्रेन से प्रतिस्पर्धा करने लगी हो. ट्रेन के साथ दौड़ लगाते बस्तियों के बच्चे, ख़ुशी में हाथ लहराते. दूर-दूर तक फैले हुए हरे-भरे खेत और उनमे काम करने वाले किसान मानो पाब्लो पिकासो की नयी पेंटिंग हो. ट्रेन stopage पर भीड़ लगाये इंतज़ार में खड़े सेकडों लोग खड़े. पूल के उपर से धड-धडाती  ट्रेन, लगता है मानो अभी हम गिरे... और जब ट्रेन मुड़ती है तब धुआ फैकते इंजन को देखना किसी मनोहारी दृश्य से कम नहीं लगता. ऐसे में दोस्तों की मस्ती सफ़र को और सुहाना बना देती है. 
 
पातालपानी इंदौर से महज २८ km   की दूरी पर है. उससे पहले ? आता है  ट्रेन बस यही रूकती है. यहाँ से कुछ दूरी पर ही पातालपानी है जहाँ पैदल भी जाया जा सकता है. लेकिन यदि आप झरने के यहाँ ही उतरना चाहते है तो आपको वहां तुंरत उतरना होता है, सिर्फ कुछ मिनटों में,  क्योंकि यहाँ ट्रेन कुछ धीमी हो जाती जिस बीच उतरना जरूरी है. 

इस प्राकृतिक स्थल पर पाँव पड़ते से ही आप इसके मोह में बांध जायेंगे. ऊँचे-ऊँचे पहाडो के बीच बहती हुयी पतली-सी जल-धरा जब १५० फीट नीचे गिरती है. तो उस मनोहारी क्षण को निहारते ही रह जाते है. यहाँ नीचे उतरना मना है, लेकिन कौन रोक सका है यहाँ खुद को. हालाँकि यहाँ कई दुखद घटनाये भी घटती रहती है. इसलिए बेहतर है की अपना आपां न खोये और धैर्य से काम ले. 

हम सभी दोस्तों ने नीचे उतरने की ठान ली थी, खाई खड़ी थी, डर था की जरा-सी लापरवाही से इस जंगल में न भटकना पड़े...एक भुत की तरह.  एक छोटी सी लापरवाही और अल्लाह को प्यारे. हम आहिस्ता-आहिस्ता पैर जमा कर नीचे उतरते रहे. जैसे-ही हम नीचे पहुंचे हमारी ख़ुशी का ठिकाना न रहा. खूब ठहाके लगाये, चिल्लाये, यहाँ-वहां दौडे-कूदे, खूब मस्ती की. कपडे उतारकर ठंडे पानी में खूब नहाये. पदम और मैंने झरने के काफी नजदीक पहुचं कर कुछ फोटोग्राफ्स लिए. हमारी इस हरकत से आशीष नाराज होने लगा, कहने लगा- 'देखो, इतने पास मत जाओ, तुम्हारा पाँव फिसल गया तो कुछ भी बुरा हो सकता है. यहाँ पर बहुत सारे मर चुके है.', ओह! पूरा रटा-रटाया lecture.

 इसके बाद जंगल में काफी दूर तक घूमते रहे. पहाडो के बीच से ट्रेन को गुजरते हुए देखना किसी हिल स्टेशन पर घुमाने से कम न था. मीटर gage पटरी पर धुआ फेकती हुयी ये ट्रेने बड़ी प्यारी लगती है.

 यहाँ और भी कई लोग नया साल celebrate करने आये थे.एक उचें टीले पर कुछ लड़के अपनी पार्टी celebrate कर रहे थे, काफी कुछ खाने का सामान और wine भी लेकर आये थे, की हम क्या देखते है की कुछ काले मुहँ के बंदरों ने उन पर धांवा बोल कर सारा खाना छीन लिया और उन बेबस लड़को को पानी में छलांग लगा कर बचना पड़ा. इस वाकये से हम सतर्क हो गए और काफी होशियारी से हमने पार्टी मनाई.

अब जब काफी मनोरंजन हो चूका था हमने चलना चाहा.
'नहीं, इस रास्ते से आये थे',
'नहीं यार, उस रास्ते से आये थे,'  
'पदम मेरी बात मानो हम उसी रास्ते से आये थे.'  
हम किस रास्ते से नीचे उतरे थे इस पर थोडी गहमा-गहमी हो गयी थी.

 पहाडी चडते समय अलग-अलग उचाईओं से जंगल के अलग-अलग दृश्य देखने को मिलते है. और हर द्रश्य कैमरे में कैद करने लायक. जब हम उपर पहुचें तो आशीष ने सुझाया की यहाँ से दस किलोमीटर दूर 'कलाकुंड' नाम की एक अच्छी जगह है, कहते है की वहां पर एक कुण्ड है जिसमे लगातार पानी बना रहता है और बगैर किसी छेद के! वाकई! हम सभी को वहां जाना रोचक लगा. सो हम पटरी के किनारे बैठ कर ट्रेन का इंतज़ार करने लगे. इतने में ही एक इंजन धक्-धकाता चला आ रहा था इंजन हम से कुछ ही दूरी पर था, पदम और मैंने दौड़ना भी चाहा लेकिन एक फ़कीर की बात मान बैठे आशीष और लोकेन्द्र  ने कहा की इंजन को यही रोक लेंगे. हमने कहा- 'इंजन तुम्हारे बाप का है जो रोक लेंगे, और वो फ़कीर तो युहीं पागल जैसी बात कर रहा है'  जब इंजन पास से गुजरा तो हमने हाथ भी दिया, लेकिन ड्राईवर ने अपना भरी-भरकम सिर हिला दिया. 
अब हमारे पास माथा पीटने के सिवा कुछ नहीं था. दोपहर के २ बजने वाले थे. और कुछ घुमने की इच्छा बाकी रह गयी थी. अगली ट्रेन का भरोसा हमे नहीं था की कब आये? हम सभी में कालाकुंड जाने की ठन जो गयी थी इसलिए हमने कठिन फैसला किया- पैदल ही १० किलोमीटर चलने का.

शुरुआत में ही पहला बोगदा, हममे से किसी ने भी बोगदे में पैदल जाने का अनुभव नहीं किया. जैसे-जैसे हम आगे बाद रहे थे, अँधेरे में कहीं गुम हो रहे थे. पीछे रौशनी धीरे-धीरे कहीं खो रही थी.  और जब हम बोगदे के बीचों-बीच पहुचे तो लगा जैसे हम पाताल में हो, घुप अँधेरा, किसी भी पल चीखती धड-धडाती ट्रेन हमे कूच  कर निकल जाएँगी. शायद नरक ऐसा ही होता होगा, सभी इन्द्रियों को शिथिल कर देने वाला कारागार. लेकिन जैसे ही दुसरे सिरे पर रौशनी दिखाई पड़ती है तब जान में जान आती है. लगा की आगे जीवन अभी बाकी है, कुछ उम्मीदे बाकी है. 

चारो और उची-उची  और संकरी पहाडियां, शायद इन पहाडियों को चिर कर ही ये रास्ता निकला हो. संकरी इतनी की जब ट्रेन गुजरे तो डर लगे कहीं पहाडियों में पिस न दे. चारो और हरियाली थी, पक्षियों के चह-चहाने की आवाजे जो कभी सुनी नहीं.

बीच में कोई बस्ती भी नहीं. बस चलते रहो. काफी दूर चलने के बाद एक रेलवे ब्रिज मिला, जिसकी सीड़ियों से हम नीचे उतरे. पूल के skeleton  पर खड़े होकर कुछ फोटोग्राफ्स लिए,  लोकेन्द्र और मैं पूल का निरिक्षण करने लगे. और आशीष हमेशा की तरह भाषण देता रहा.

जब हम काफी देर तक चलते रहे तो हमे प्यास लगने लगी. इस जंगल में प्याऊ कहाँ से आये. कौन बन्दर पानी के पाऊच बेचता. लेकिन कुछ दूर हमे एक कुआ दिखाई दिया, कुआ पगडंडी से काफी अन्दर की और छाडियो में था. जिसके पास ही एक पानी का सोता बह रहा था उसमे कुछ मछलिया भी तैर रही थी और एक केकडे की लाल टांग पड़ी थी, हमने इसी पानी से अपनी प्यास बुझाई.

हम बहुत देर से चल रहे थे और हमे तो पता भी नहीं था की कालाकुंड का रास्ता किधर है, बस हम तो पटरी को follow करते हुए यहाँ तक आ पहुचे. बीच में कोई बस्ती भी नहीं मिली की पूछ कर तस्सल्ली कर ले. फिर भी हम चलते रहे ये सोच कर की कहीं तो पहुचेंगे. दोपहर के ४ बजाने वाले थे सूरज की किरणे भी तिरछी हो चली थी. मौसम भी ठंडा होने लगा था आशीष और धर्मेन्द्र की धीमी चाल से हम वाकई में लेट हो रहे थे. सो हमने तेज़ चलने वालो को आगे रखा मतलब पदम और मैं. हममे थकान का एहसास तक न था और यदि हम सोचते की हम थक रहे है तो यकीनन रात जंगल में ही गुजारनी पड़ती.

सो हम बातचीत बंद कर चुपचाप तेज गति से चलते रहे. थोडी दूरी पर रेलवे के सिग्नल पोल्स दिखने लगे, लगा की बस्ती दूर नहीं.
 
थोडी ही देर में हमे पटरी पर रखे इंजन की आवाज़ आने लगी. टेकरी के उपर बसे घर  भी दिखने लगे,  हमने राहत की सांस ली. टिकिट घर के पास एक हैंडपंप नज़र आया. हम सभी ने हाथ-मुहं धोये और चैन से थोडी देर सुस्ताने लगे. इतने में पदम ने एक बुजुर्ग से कुछ पूछा. फिर पदम हमारी और आया, बड़े ही अचरज भाव से उसने ये दुखद घटना सुनाई की यहाँ कोई कुण्ड-वुंड  नहीं है. खैर हमे कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ा. बस, जैसे तैसे यहाँ पहुच गए वही बहुत है. और फिर यहाँ की खूबसूरती ने हम सबका मन मोह लिया था. कुछ ही परिवारों का एक छोटा सा गावं, जिसका अपना नाम मात्र का रेलवे स्टेशन. जिसके स्थानीय कर्मचारी- हाथ में पुराने lantern लिए आने वाली ट्रेन का इंतज़ार करे हुए इहर-उधर घूम रहे थे. आशीष पर क्या गुस्सा करते हम, जिस लालच में हम यहाँ तक आये और वो नहीं मिला तो क्या उससे भी बड़ कर जो हमे यहाँ मिला था वो उससे भी ज्यादा अनमोल था.

सूरज ढल चूका था और आसमान में तारे भी निकल आये थे. अँधेरा तेजी से छाने लगा. स्टेशन पर चाय के ठेले वाले ने भी अंगीठी सुलगा ली. लोग उसके आस पास खड़े होकर हाथ सेंक रहे थे. उस रात बेंच पर बैठ कर चाय की चुस्किया लेना, और गुलाबी ठण्ड में आसमान में orion को निहारना हममे से कोई भुला नहीं पायेगा. इंदौर के लिए एक ट्रेन थी मीनाक्षी, जो ८ बजे आने वाली थी. बस हम सब की एक ही ख्वाइश थी की किसी तरह घर पहुच जाए. शायद ही किसी ने इस नए साल को इतना लम्बा celebrate किया होगा. हमारी इस adventurous सफ़र को १२ घंटे से भी ज्यादा हो चुके थे. 

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