"...लिखते रहना चाहिये"
"तब-तब ही लिखा जब कुछ टुटा या कोई छुटा। आज कुछ नहीं बस यूँ ही लिखने को जी
चाहा। पता चला कि लिखने की एक आदत सी हो गयी है। हम सभी लिखते है कभी न
कभी। फिर जख्म भर जाते है या भोलापन कही खो जाता है और इस तरह लिखना छुट
जाता है। फिर बस एक सोच रह जाती है। हम जड़ होते जाते है लेकिन भावना शुन्य
नहीं। वो या तो दबा ली जाती है या कुंठित होती जाती है। शायद दुनिया इसे
सयानापन कहती हो। लिखते रहना चाहिए। इससे हम जीवित महसूस करते है। खुद से
गुफ्तगू करने का एक बहाना मिलता है। वरना सोचो! कब हमने खुद से खुद का हाल
पूछा?"
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