विलुप्ति की कगार पर गौरय्या

बड़ी विचित्र बात है हमारे आँगन में स्वछन्द विचरने  वाली गौरय्या धीरे-धीरे विलुप्ति की कगार पर है. सिर्फ शहरो में ही नहीं गाँवो और जंगलो में भी इनकी मौजूदगी कम दर्ज की जा रही है. मनुष्य जाति से अत्यधिक निकटता रखने वाली इस प्रजाति को यदि आज सबसे अधिक खतरा है तो वो है वायुमंडल में मौजूद तरंगे; जो मोबाइल और अन्य उपकरणों से निकलती है. वैज्ञानिको ने माना है की ये तरंगे इनके अन्डो के कवच पर विपरीत असर डाल कर इनकी शैलों को कमजोर बना रहे है. जो निषेचन से पूर्व ही फुट जाते है. ये आधुनिक जीवनशैली का ही परिणाम है. ऐसी कितनी ही छोटी मोटी बाते है जो वन्य जीवन को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है. उक्त प्रकरण में हम कुछ नहीं कर सकते है. क्या हम अपने सुविधा के साधनों को कम करेंगे या डार्विन के "योग्यतम की उत्तरजीविता" के सिद्धांत के आधार पर लड़खड़ा रहीं  वन्य-प्रजातियों को खुद के हाल पर छोड़ देंगे? संभवतः मनुष्य अपनी सुविधा को लेकर  कोई समझौता नहीं करना चाहेगा. वन्य-जीवों को ही मनुष्य के साथ सामंजस्य बैठना होगा. 

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