आस्था का प्रश्न
क्या हम वाकई ईश्वर में विश्वास रखते है या फिर किस्मत में विश्वास रखते है? ये सवाल वाकई में उलझन भरे है जिनका कभी-भी स्पष्ट जवाब नहीं मिल सकता है.
क्या ईश्वर है? या क्या आप ईश्वर में विश्वास रखते है? ये दो सवाल है ही अहम् है. पहला सवाल ईश्वर के अस्तित्व की पहल करता है जबकि दूसरा सवाल उस पर किये जाने वाले विश्वास की है ना की ईश्वर के होने या ना होने की पहल करता है.
जब ईश्वर की बात आती है तो अधिकांश लोग ईश्वर के अस्तित्व में उलझ कर रह जाते है. और एक बार फिर खुद से पूछ बैठते है क्या ऐसा वाकई में ईश्वर है क्या?
आस्था को किसी समय-सीमा में बांधना उतना ही कठिन है जितना रेंत को मुट्ठी में भीचना. आस्था इन सब चीजो से परे है. कभी कोई इसे नाप नहीं सका, दुनिया में इसका कोई बैरोमीटर नहीं है. सिर्फ आपका हृदय ही है जो इसे ग्राह्य कर सकता है. मष्तिस्क नहीं, क्योकि वह तर्क करेगा.
मंदिर की सीड़ियों पर चड़ने से पहले यदि आपने मष्तिष्क का उपयोग किया तो आपको वहीँ से लौट जाना पड़ेगा, और यदि हृदय का उपयोग किया तो फिर आपका मन ही मंदिर हो जायेगा.
सदी के इस दौर में जहाँ सभी प्रकार की सुखा-सुविधाए और हर प्रकार की व्याधि का इलाज मौजूद है तो फिर व्यक्ति की प्रकृति के प्रति आस्था का कम होना स्वाभाविक ही है. हजारो साल पहले जब ये सब नहीं था तब मनुष्य का ईश्वर से गहरा रिश्ता था, सीधा-सा अर्थ है की हमारी प्रजाति जितनी विकासित हुयी है उतना ही धर्मं से दूर होती चली गयी. वैज्ञानिक प्रगति से इतना अधिक सुखा मिला है की किसी और चीज में आस्था रखने का प्रश्न ही नहीं रहा. लेकिन अब जब वैज्ञानिक उन्नति अपने चरम पर है और उसके साइड इफेक्ट जान पड़े है, जीवन शैली उबाऊ हो चली है, रात को देर तक जागना और सुबह देर से उठाना तर्क संगत मालूम नहीं जान पड़ा तब हमें लगा की इस ब्रिह्मांड में कहीं कुछ ऐसा भी है जिस ध्यान मष्तिष्क को शान्ति देता है.
व्यक्ति धर्मं नहीं, बल्कि उससे मिलने वाले आनंद की और आकर्षित हो रहा है. नाम में नहीं हैं, बल्कि उसके अर्थ में रूचि ले रहा है.
अब जापानियों को चरखा चलाने से आत्मिक शान्ति मिल सकती है तो हमें भी आस्था को अपने जीवन में उतारने के कुछ और आसान तरीके अपनाने होंगे.
क्या ईश्वर है? या क्या आप ईश्वर में विश्वास रखते है? ये दो सवाल है ही अहम् है. पहला सवाल ईश्वर के अस्तित्व की पहल करता है जबकि दूसरा सवाल उस पर किये जाने वाले विश्वास की है ना की ईश्वर के होने या ना होने की पहल करता है.
जब ईश्वर की बात आती है तो अधिकांश लोग ईश्वर के अस्तित्व में उलझ कर रह जाते है. और एक बार फिर खुद से पूछ बैठते है क्या ऐसा वाकई में ईश्वर है क्या?
आस्था को किसी समय-सीमा में बांधना उतना ही कठिन है जितना रेंत को मुट्ठी में भीचना. आस्था इन सब चीजो से परे है. कभी कोई इसे नाप नहीं सका, दुनिया में इसका कोई बैरोमीटर नहीं है. सिर्फ आपका हृदय ही है जो इसे ग्राह्य कर सकता है. मष्तिस्क नहीं, क्योकि वह तर्क करेगा.
मंदिर की सीड़ियों पर चड़ने से पहले यदि आपने मष्तिष्क का उपयोग किया तो आपको वहीँ से लौट जाना पड़ेगा, और यदि हृदय का उपयोग किया तो फिर आपका मन ही मंदिर हो जायेगा.
सदी के इस दौर में जहाँ सभी प्रकार की सुखा-सुविधाए और हर प्रकार की व्याधि का इलाज मौजूद है तो फिर व्यक्ति की प्रकृति के प्रति आस्था का कम होना स्वाभाविक ही है. हजारो साल पहले जब ये सब नहीं था तब मनुष्य का ईश्वर से गहरा रिश्ता था, सीधा-सा अर्थ है की हमारी प्रजाति जितनी विकासित हुयी है उतना ही धर्मं से दूर होती चली गयी. वैज्ञानिक प्रगति से इतना अधिक सुखा मिला है की किसी और चीज में आस्था रखने का प्रश्न ही नहीं रहा. लेकिन अब जब वैज्ञानिक उन्नति अपने चरम पर है और उसके साइड इफेक्ट जान पड़े है, जीवन शैली उबाऊ हो चली है, रात को देर तक जागना और सुबह देर से उठाना तर्क संगत मालूम नहीं जान पड़ा तब हमें लगा की इस ब्रिह्मांड में कहीं कुछ ऐसा भी है जिस ध्यान मष्तिष्क को शान्ति देता है.
जिस तरह प्रतान [बेल] को बड़ने के लिए किसी सहारे की जरूरत होती है उसी तरह के सहारे की हमें भी आवश्यकता होती है. ये तथ्य एक विरोधाभास उत्पन्न करता है की जहाँ हमें किसी नाम विशेष को महत्व नहीं देना उसी के विपरीत हमें उसका सहारा भी लेना है. ये बात कुछ मोहब्बत जैसी हो गयी है की बात कहनी भी है और छुपानी भी. जी हाँ, एक बार विवेकानंद ने कहा था की ईसा में विश्वास रखना आसान है बजाय की कृष्ण में.क्योंकि कृष्ण भौतिक शक्तियों से परे है.और जो चीज परे होती है हमे उलझाती है.
व्यक्ति धर्मं नहीं, बल्कि उससे मिलने वाले आनंद की और आकर्षित हो रहा है. नाम में नहीं हैं, बल्कि उसके अर्थ में रूचि ले रहा है.
अब जापानियों को चरखा चलाने से आत्मिक शान्ति मिल सकती है तो हमें भी आस्था को अपने जीवन में उतारने के कुछ और आसान तरीके अपनाने होंगे.
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