...मुझे लगता है की हिन्दी में लिखना वाकई में आत्मिक शान्ति देता है। क्यो नहीं, आख़िर ये मेरी मातृभाषा है। मैं लंबे अरसे इसी सवाल में उलझता रहा हूँ की क्या वाकई इस अंग्रेज़ी युग में हिन्दी का अस्तित्व मिट जाएगा ? या फ़िर ये मात्र आपसी संवाद की भाषा बनकर रह जायेगी ? खैर, मैं इतनी भी चिंता नहीं करता क्योंकि सब समय के चक्र में आते-जाते रहते है। कभी संस्कृत हमारी भाष थी आज नहीं है, कल को अंग्रेज़ी होगी; ये क्रम चलता ही रहेगा। ये बिल्कुल वैसा ही है जैसे मैं कल फ़ोन का उपयोग करता था, लेकिन आज मोबाइल का 'use' कर रहा हूँ। मनुष्य के लिए सुविधा सर्व प्रथम है। जैसे की आज अंग्रेज़ी।
पारिजात
'पारिजात, तूम अब भी स्मृतियों में ठीक उसी तरह मेरे मन को प्रफुल्लित करते हो जैसे रात्रि के अंतिम पहर में तुम फूलो से मेरे आँगन को अपनी सुगंध से भर दिया करते थे...
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